उत्तराखंड के पहाड़ों में पलायन का दंश, हजारों घरों में एक भी वोटर नहीं।

उत्तराखंड में बहुतायत में पलायन होने की कहानी किसी से नहीं छुपी। लेकिन आलम इतना बुरा है कि जिसने एक बार गांव से विदा ली दोबारा वहां का रुख नहीं किया. उम्मीद थी कि अलग राज्य बनने के बाद तस्वीर बदलेगी, लेकिन इसमें जरा भी बदलाव नहीं हुआ. बल्कि, गुजरे 16 सालों में तो पलायन की रफ्तार थमने की बजाए ज्यादा तेज हुई है.
सूबे के कुल 16793 गांवों में से 3 हजार का वीरान होना इसकी तस्दीक करता है. 2 लाख 57 हजार 875 घरों में ताले लटके हैं. चीन और नेपाल से सटे सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कहे जाने वाले उत्तराखंड में गांवों का खाली होना बाह्‌य व आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक हो सकता है. बावजूद इसके अब तक यहां की सरकारों ने शायद ही कभी पलायन के मुद्दे पर गंभीरता से मंथन कर इसे थामने के प्रयास किए हों. इसी का नतीजा है कि रोजगार के लिए न तो पहाड़ में उद्योग चढ़ पाए और न मूलभूत सुविधाएं ही पसर पाईं.
उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों के सुदूरवर्ती गांवों के हालात आज भी ठीक वैसे ही हैं जैसे राज्य बनने से पहले थे. ये बात अलग है कि उत्तराखंड की मांग के पीछे भी गांवों को सरसब्ज बनाने के साथ ही शिक्षा एवं रोजगार के अवसर जुटाने की मंशा थी, मगर सियासतदां ने विषम भूगोल वाले पहाड़ के गांवों की पीड़ा को समझा ही नहीं. परिणामस्वरूप शिक्षा, रोजगार व सुविधाओं का अभाव लोगों को पलायन के लिए विवश कर रहा है.
अब थोड़ा हालात पर भी नजर दौड़ाते हैं. राज्य में सरकारी अस्पताल तो खुले हैं, लेकिन इनमें चिकित्सकों के आधे से अधिक पद खाली हैं. दवा मिलना तो दूर की बात है. शिक्षा की बात करें तो एनुअल स्टेटस आफ एजुकेशन की रिपोर्ट बताती है कि बुनियादी शिक्षा बदहाल है. सरकारी प्राथमिक स्कूलों में 40 फीसद से अधिक बच्चे गुणवत्ता के मामले में औसत से कम हैं. 71 फीसद वन भूभाग होने के कारण पहाड़ में तमाम सड़कें अधर में लटकी हुई हैं.
रोजगार के अवसरों को लें तो 2008 में पर्वतीय औद्योगिक प्रोत्साहन नीति बनी, मगर उद्योग पहाड़ नहीं चढ़ पाए. करीब चार हजार के करीब तो गांवों को बिजली का इंतजार है. जिन क्षेत्रों में पानी, बिजली आदि की सुविधाएं हैं, उनमें सिस्टम की बेपरवाही किसी से छिपी नहीं है.

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