Swami Vivekananda Chicago Speech Video in Hindi
∗स्वामी विवेकानंद का प्रसिद्ध सिकागो भाषण∗
:स्वामी विवेकानंद:
(12 जनवरी 1863 – 4 जुलाई 1902)
अमेरिकी बहनों व भाइयों,
आपके उत्साहपूर्ण हार्दिक अभिनन्दन से मेरा हृदय अवर्णनीय असीम आनन्द से भर गया है. मैं आपको संसार कीसबसे प्राचीन ऋषि-मुनि परम्परा की ओर से धन्यवाद देता हूँ; मैं आपको सभी धर्मों की जननी की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और मैं आपको सभी वर्गों व सम्प्रदायों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मेरा, इस मंच से बोलनेवाले उन वक्ताओं को भी धन्यवाद, जिन्होंने पूर्वी देशों के प्रतिनिधियों के बारे में बताया कि, सुदूर देशों के इन लोगों को, सहिष्णुता के भाव को विभिन्न देशों में प्रसारित करने का गौरव हासिल है। मुझे एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व है, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति (tolerance and universal acceptance), दोनों का पाठ पढ़ाया। हम लोग केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, बल्कि समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं।
मुझे ऐसे देश का निवासी होने पर गर्व है, जिसने इस धरती के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बताते हुए गर्व होता है कि हमने अपने हृदय में यहूदियों के विशुद्धतम अवशेष को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत में आकर तब शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमनों के अत्याचार से तहस-नहस हो गया था।
मुझे ऐसे धर्म का अनुयायी होने पर गर्व है, जिसने महान जरथुष्ट्र (पारसी) राष्ट्र के अवशेषों को शरण दी तथा उन्हेंवह अभी भी प्रोत्साहित कर रहा है। भाईयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र (भजन) की कुछ पंक्तियाँ सुनाऊंगा,जिनको, मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं बहुत बचपन से ही बार बार दोहराता रहा हूँ और जिनको प्रतिदिन लाखों लोग दोहराते रहते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
अर्थात “जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न प्रवृति के अनुसार मनुष्य विभिन्न टेढ़े-मेढ़े या सीधे रास्ते पर चलकर अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।“
मौजूदा सम्मेलन, जो अब तक आयोजित सबसे गरिमामय सभाओं में से एक है, स्वतः ही गीता में दिये अद्भुत सिद्धांत की एक प्रामाणिकता है,संसार को एक वचन है: “जो कोई भी मेरी ओर आता है, चाहे वो किसी भी रूप में हो, मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग विभिन्न मार्गों द्वारा संघर्ष करते हैं, जिनका अन्त मुझ में ही है।“
(ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।)
साम्प्रदायवाद, हठधर्मिता और उनकी भयावह संतति धर्मान्धता लम्बे समय से इस सुन्दर पृथ्वी पर काबिज हैं। इन्होंने, पृथ्वी को हिंसा से भर दिया, इसको बारम्बार मानव के खून से लाल किया, सभ्यताओं को विध्वस्त किया और पूरे के पूरे राष्ट्रों को निराशा की गर्त में धकेल दिया है। यदि ये भयावह पिशाच न होते, तो मानव समाज आज जहाँ है, उससे बहुत अधिक उन्नत होता। पर अब उनका अंत समय आ गया है, और मुझे पूरे प्राण से विश्वास है कि आज सुबह इस सम्मेलन के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता के, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले समस्त अत्याचारों के, तथा एक ही ध्येय की ओर अग्रसर होने वाले मानवों में पारस्पारिक समस्त कटुताके, ताबूत में अंतिम कील साबित होगा।
मित्रों,
यह स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर 1893 को सिकागो, अमेरिका में हुए एक विशाल धार्मिक सम्मेलन में यह प्रसिद्ध भाषण दिया था. जिसने भारत की गिरी हुई प्रतिष्ठा को विश्व में पुन: प्रतिष्ठापित किया. यह भाषण अंग्रेजी में दिया गया था.
Comments
Post a Comment