मानवीय प्रवृत्ति
समय बदलता है सबका
हर सजीव , निर्जीव का
अपने प्रवाह में समय बदल देता है
अनगिनत जिन्दगियाँ, भावनाएँ, हालात , तौर-तरीके
यहाँ तक कि हमारा एक-एक क्षण
सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ
पर नहीं बदल पाता है तो
स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति
वो प्रवृत्ति जो 'समय' रूपी सिक्के के दोनों पहलुओं ' सुख और दुख'
में उलझी रहती है
जो सुख के समय मनुष्य के आँखों पर बाँध देती है पट्टी
डुबो देती है उसे कुछ क्षणों के लिए सुख के अनंत सागर में
और मनुष्य, मनुष्य प्रवृत्तिवश रम जाता है उसमें
इतना कि,
भूल जाता है सृष्टि के समूल कारण
ईश्वर को ही
दूसरों पर पड़े दुख के अथाह सागर की लहरों को अनदेखा करते हुए
भूल जाता है -
सुख के अदंर दुख की विद्यमता को भी
चाँदनी रात में एक रात कृष्णा को ही
क्रमशः दोनों चलते रहते हैं-
प्रकृति का नियम है ये
प्रवृत्तिवश मनुष्य की उम्मीद
और, और ,और की रहती है
क्या और?
' सुख'
उसकी दूरगामी कल्पना में दुख
दूर- दूर तक नहीं होता
होता है तो केवल निरंतर आगे बढ़ने का ख्वाब
इसीलिए ,
बस इसीलिए नहीं तैयार कर पाता
वह स्वंय को ' दुख' के , सुख से कोसों दूर समय के लिए
यथार्थ को नकारते हुए
मढ़ देता है सारा दोष -
विधाता के ऊपर
उस बुरे वक्त के लिए
प्रवृत्तिवश एक बार भी नहीं झाँकता
अपने दोषों में
कि- काश! एक बार दुख की कल्पना तो की होती
इतनी मशक्कत न करनी पड़ती
इसमें जीने के खातिर
पी लेता इसे भी समय का प्रवाह समझकर
' सुख' की तरह ईश्वर का प्रसाद समझकर
सुख के समय जितना सुख महसूस किया था
दुख के समय उतना ही दोगुना दुख!
लेकिन यहाँ फर्क है
सुख के समय , दूर- दूर तक केवल सुख की कल्पना थी
और आज, आज दुख इतना कड़वा महसूस हो रहा है कि
मन में केवल सुख की कल्पना ही नहीं वरन् आँखों में सुख की उम्मीद
हृदय में दुख से उबरने का अदम्य उत्साह
सुख की छोर तक पहुँचने का अथक प्रयास
चीख - चीख कर परमेश्वर से सुखद समय माँगती पुकार के स्वर
जो सुख में शायद ही सुनाई देते
एक साथ प्रवाहित हो रहें हैं
सारी हताशा , निराशा बह जाती है-
इसी प्रवाह में
फिर गतिमान समय
बदलते रंगो की तरह ले आता है
फिर वही ' गुलाबी' रंग
दुख की कल्पना से सदियों दूर
बाँध देता है मनुष्य को
उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति में
फिर वही, पहले जैसा
सब कुछ
कितना अंतर कर देती है ये प्रवृत्ति
समय के दोनों पहलुओं में
कि सदियों का सुख एक क्षण
और क्षणभंगुर दुख सदियों के बराबर लगता है
बदल डालो ये प्रवृत्ति
सम्मान करो सुख का भी दुख का भी
सहज रहो , संयम रखो
सुख में भी दुख में भी
फिर देखना
बड़े से बड़ा दुख भी तुम्हें विचलित नहीं कर पाएगा
तुम्हें समरूप देखकर चला जाएगा वो समय से पहले ही
बन जाओ एक नयी प्रवृत्ति के रचयिता
सुख में सुख का आभास और सुख की आस
दुख में दुख का आभास और सुख की आस
जो भ्रम है, नहीं होना चाहिए
भ्रम है मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण
शत प्रतिशत भ्रम!!
- आभा मिश्रा
हर सजीव , निर्जीव का
अपने प्रवाह में समय बदल देता है
अनगिनत जिन्दगियाँ, भावनाएँ, हालात , तौर-तरीके
यहाँ तक कि हमारा एक-एक क्षण
सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ
पर नहीं बदल पाता है तो
स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति
वो प्रवृत्ति जो 'समय' रूपी सिक्के के दोनों पहलुओं ' सुख और दुख'
में उलझी रहती है
जो सुख के समय मनुष्य के आँखों पर बाँध देती है पट्टी
डुबो देती है उसे कुछ क्षणों के लिए सुख के अनंत सागर में
और मनुष्य, मनुष्य प्रवृत्तिवश रम जाता है उसमें
इतना कि,
भूल जाता है सृष्टि के समूल कारण
ईश्वर को ही
दूसरों पर पड़े दुख के अथाह सागर की लहरों को अनदेखा करते हुए
भूल जाता है -
सुख के अदंर दुख की विद्यमता को भी
चाँदनी रात में एक रात कृष्णा को ही
क्रमशः दोनों चलते रहते हैं-
प्रकृति का नियम है ये
प्रवृत्तिवश मनुष्य की उम्मीद
और, और ,और की रहती है
क्या और?
' सुख'
उसकी दूरगामी कल्पना में दुख
दूर- दूर तक नहीं होता
होता है तो केवल निरंतर आगे बढ़ने का ख्वाब
इसीलिए ,
बस इसीलिए नहीं तैयार कर पाता
वह स्वंय को ' दुख' के , सुख से कोसों दूर समय के लिए
यथार्थ को नकारते हुए
मढ़ देता है सारा दोष -
विधाता के ऊपर
उस बुरे वक्त के लिए
प्रवृत्तिवश एक बार भी नहीं झाँकता
अपने दोषों में
कि- काश! एक बार दुख की कल्पना तो की होती
इतनी मशक्कत न करनी पड़ती
इसमें जीने के खातिर
पी लेता इसे भी समय का प्रवाह समझकर
' सुख' की तरह ईश्वर का प्रसाद समझकर
सुख के समय जितना सुख महसूस किया था
दुख के समय उतना ही दोगुना दुख!
लेकिन यहाँ फर्क है
सुख के समय , दूर- दूर तक केवल सुख की कल्पना थी
और आज, आज दुख इतना कड़वा महसूस हो रहा है कि
मन में केवल सुख की कल्पना ही नहीं वरन् आँखों में सुख की उम्मीद
हृदय में दुख से उबरने का अदम्य उत्साह
सुख की छोर तक पहुँचने का अथक प्रयास
चीख - चीख कर परमेश्वर से सुखद समय माँगती पुकार के स्वर
जो सुख में शायद ही सुनाई देते
एक साथ प्रवाहित हो रहें हैं
सारी हताशा , निराशा बह जाती है-
इसी प्रवाह में
फिर गतिमान समय
बदलते रंगो की तरह ले आता है
फिर वही ' गुलाबी' रंग
दुख की कल्पना से सदियों दूर
बाँध देता है मनुष्य को
उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति में
फिर वही, पहले जैसा
सब कुछ
कितना अंतर कर देती है ये प्रवृत्ति
समय के दोनों पहलुओं में
कि सदियों का सुख एक क्षण
और क्षणभंगुर दुख सदियों के बराबर लगता है
बदल डालो ये प्रवृत्ति
सम्मान करो सुख का भी दुख का भी
सहज रहो , संयम रखो
सुख में भी दुख में भी
फिर देखना
बड़े से बड़ा दुख भी तुम्हें विचलित नहीं कर पाएगा
तुम्हें समरूप देखकर चला जाएगा वो समय से पहले ही
बन जाओ एक नयी प्रवृत्ति के रचयिता
सुख में सुख का आभास और सुख की आस
दुख में दुख का आभास और सुख की आस
जो भ्रम है, नहीं होना चाहिए
भ्रम है मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण
शत प्रतिशत भ्रम!!
- आभा मिश्रा
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