संतोष से सुख
एक आदमी ने भगवान बुद्ध से पुछा : जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध ने उसे एक Stone दिया और कहा : जा और इस stone का
मूल्य पता करके आ , लेकिन ध्यान रखना stone को बेचना नही है I
वह आदमी stone को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है?
संतरे वाला चमकीले stone को देखकर बोला, "12 संतरे लेजा और इसे मुझे दे जा"
आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले stone को देखा और कहा
"एक बोरी आलू ले जा और इस stone को मेरे पास छोड़ जा"
आगे एक सोना बेचने वाले के
पास गया उसे stone दिखाया सुनार उस चमकीले stone को देखकर बोला, "50 लाख मे बेच दे" l
उसने मना कर दिया तो सुनार बोला "2 करोड़ मे दे दे या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे..
उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू ने इसे बेचने से मना किया है l
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे stone दिखाया l
जौहरी ने जब उस बेसकीमती रुबी को देखा , तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया फिर उस बेसकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका l
फिर जौहरी बोला , "कहा से लाया है ये बेसकीमती रुबी? सारी कायनात , सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नही लगाई जा सकती ये तो बेसकीमती है l"
वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया l
अपनी आप बिती बताई और बोला "अब बताओ भगवान , मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध बोले :
संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत "12 संतरे" की बताई l
सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत "1 बोरी आलू" बताई l
आगे सुनार ने "2 करोड़" बताई lऔर जौहरी ने इसे "बेसकीमती" बताया l
अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है l
" तू बेशक हीरा है..!!लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत,
अपनी औकात - अपनी जानकारी - अपनी हैसियत से लगाएगा। "
घबराओ मत दुनिया में.. तुझे पहचानने वाले भी मिल जायेगे।
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An elephant and a dog became pregnant at same time. Three months down the line the dog gave birth to six puppies. Six months later the dog was pregnant again, and nine months on it gave birth to another dozen puppies. The pattern continued...
On the eighteenth month the dog approached the elephant questioning, ”Are you sure that you are pregnant? We became pregnant on the same date, I have given birth three times to a dozen puppies and they are now grown to become big dogs, yet you are still pregnant. Whats going on?”.
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बुद्ध ने उसे एक Stone दिया और कहा : जा और इस stone का
मूल्य पता करके आ , लेकिन ध्यान रखना stone को बेचना नही है I
वह आदमी stone को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है?
संतरे वाला चमकीले stone को देखकर बोला, "12 संतरे लेजा और इसे मुझे दे जा"
आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले stone को देखा और कहा
"एक बोरी आलू ले जा और इस stone को मेरे पास छोड़ जा"
आगे एक सोना बेचने वाले के
पास गया उसे stone दिखाया सुनार उस चमकीले stone को देखकर बोला, "50 लाख मे बेच दे" l
उसने मना कर दिया तो सुनार बोला "2 करोड़ मे दे दे या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे..
उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू ने इसे बेचने से मना किया है l
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे stone दिखाया l
जौहरी ने जब उस बेसकीमती रुबी को देखा , तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया फिर उस बेसकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका l
फिर जौहरी बोला , "कहा से लाया है ये बेसकीमती रुबी? सारी कायनात , सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नही लगाई जा सकती ये तो बेसकीमती है l"
वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया l
अपनी आप बिती बताई और बोला "अब बताओ भगवान , मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध बोले :
संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत "12 संतरे" की बताई l
सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत "1 बोरी आलू" बताई l
आगे सुनार ने "2 करोड़" बताई lऔर जौहरी ने इसे "बेसकीमती" बताया l
अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है l
" तू बेशक हीरा है..!!लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत,
अपनी औकात - अपनी जानकारी - अपनी हैसियत से लगाएगा। "
घबराओ मत दुनिया में.. तुझे पहचानने वाले भी मिल जायेगे।
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An elephant and a dog became pregnant at same time. Three months down the line the dog gave birth to six puppies. Six months later the dog was pregnant again, and nine months on it gave birth to another dozen puppies. The pattern continued...
On the eighteenth month the dog approached the elephant questioning, ”Are you sure that you are pregnant? We became pregnant on the same date, I have given birth three times to a dozen puppies and they are now grown to become big dogs, yet you are still pregnant. Whats going on?”.
The elephant replied, ”There is something I want you to understand. What I am carrying is not a puppy but an elephant. I only give birth to one in two years. When my baby hits the ground, the earth feels it. When my baby crosses the road, human beings stop and watch in admiration, what I carry draws attention. So what I’m carrying is mighty and great.”.
" Don’t be envious of others testimony. If you haven’t received your own blessings, don’t despair. Say to yourself “My time is coming, and when it hits the surface of the earth, people shall yield in admiration.”
" Don’t lose faith when you see others receive answers to their prayers. "
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आहार का कुप्रभाव
"किसी नगर में एक भिखारिन एक गृहस्थी के यहाँ नित्य भीख मांगने जाती थी। गृहिणी नित्य ही उसे एक मुठ्ठी चावल दे दिया करती थी। यह बुढ़िया का दैनिक कार्य था और महीनों से नहीं कई वर्षों से यह कार्य बिना रुकावट के चल रहा था। एक दिन भिखारिन चावलों की भीख खाकर ज्यों ही द्वार से मुड़ी,गली में गृहिणी का ढाई वर्ष का बालक खेलता हुआ दिखाई दिया। बालक के गले में एक सोने की जंजीर थी। बुढ़िया की नीयत बदलते देर न लगी। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई,गली में कोई और दिखाई नहीं पड़ा। बुढ़िया ने बालक के गले से जंजीर ले ली और चलती बनी।
घर पहुँची,अपनी भीख यथा स्थान रखी और बैठ गई। सोचने लगी,"जंजीर को सुनार के पास ले जाऊंगी और इसे बेचकर पैसे खरे करुँगी।" यह सोचकर जंजीर एक कोने में एक ईंट के नीचे रख दी। भोजन बनाकर और खा पीकर सो गई। प्रातःकाल उठी,शौचादि से निवृत्त हुई तो जंजीर के सम्बन्ध में जो विचार सुनार के पास ले जाकर धन राशि बटोरने का आया था उसमें तुरंत परिवर्तन आ गया। बुढ़िया के मन में बड़ा क्षोभ पैदा हो गया। सोचने लगी-"यह पाप मेरे से क्यों हो गया? क्या मुँह लेकर उस घर पर जाऊंगी?" सोचते-सोचते बुढ़िया ने निर्णय किया कि जंजीर वापिस ले जाकर उस गृहिणी को दे आयेगी। बुढ़िया जंजीर लेकर सीधी वहीं पहुँची। द्वार पर बालक की माँ खड़ी थी। उसके पांवों में गिरकर हाथ जोड़कर बोली-"आप मेरे अन्नदाता हैं। वर्षों से मैं आपके अन्न पर पल रही हूँ। कल मुझसे बड़ा अपराध हो गया,क्षमा करें और बालक की यह जंजीर ले लें।"
जंजीर को हाथ में लेकर गृहिणी ने आश्चर्य से पूछा-"क्या बात है? यह जंजीर तुम्हें कहाँ मिली?" भिखारिन बोली-"यह जंजीर मैंने ही बालक के गले से उतार ली थी लेकिन अब मैं बहुत पछता रही हूँ कि ऐसा पाप मैं क्यों कर बैठी?"
गृहिणी बोली-"नहीं, यह नहीं हो सकता। तुमने जंजीर नहीं निकाली। यह काम किसी और का है,तुम्हारा नहीं। तुम उस चोर को बचाने के लिए यह नाटक कर रही हो।"
"नहीं,बहिन जी,मैं ही चोर हूँ। कल मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। आज प्रातः मुझे फिर से ज्ञान हुआ और अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए मैंने आपके सामने सच्चाई रखना आवश्यक समझा," भिखारिन ने उत्तर दिया। गृहिणी यह सुनकर अवाक् रह गई।
भिखारिन ने पूछा-"क्षमा करें,क्या आप मुझे बताने की कृपा करेंगी कि कल जो चावल मुझे दिये थे वे कहाँ से मोल लिये गये हैं।"
गृहिणी ने अपने पति से पूछा तो पता लगा कि एक व्यक्ति कहीं से चावल लाया था और अमुक पुल के पास बहुत सस्ते दामों में बेच रहा था। हो सकता है वह चुराकर लाया हो। उन्हीं चोरी के चावलों की भीख दी गई थी।
भिखारिन बोली-"चोरी का अन्न पाकर ही मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी और इसी कारण मैं जंजीर चुराकर ले गई। वह अन्न जब मल के रूप में शरीर से निकल गया और शरीर निर्मल हो गया तब मेरी बुद्धि ठिकाने आई और मेरे मन ने निर्णय किया कि मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। मुझे यह जंजीर वापिस देकर क्षमा माँग लेनी चाहिए।"
गृहिणी तथा उसके पति ने जब भिखारिन के मनोभावों को सुना तो बड़े अचम्भे में पड गये। भिखारिन फिर बोली-"चोरी के अन्न में से एक मुठ्ठी भर चावल पाने से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो सकती है तो वह सभी चावल खाकर आपके परिवार की क्या दशा होगी,अतः, फेंक दीजिए उन सभी चावलों को।" गृहिणी ने तुरन्त उन चावलों को बाहर फेंक दिया।"
गृहिणी तथा उसके पति ने जब भिखारिन के मनोभावों को सुना तो बड़े अचम्भे में पड गये। भिखारिन फिर बोली-"चोरी के अन्न में से एक मुठ्ठी भर चावल पाने से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो सकती है तो वह सभी चावल खाकर आपके परिवार की क्या दशा होगी,अतः, फेंक दीजिए उन सभी चावलों को।" गृहिणी ने तुरन्त उन चावलों को बाहर फेंक दिया।"
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एक साधु स्वामी विवेकानन्द जी के पास आया।
अभिवादन करने के बाद उसने स्वामी जी को बताया कि वह उनके पास किसी विशेष काम से आया है। "स्वामी जी, मैने सब कुछ त्याग दिया है,मोह माया के बंधन से छूट गया हूँ परंतु मुझे शांति नहीं मिली। मन सदा भटकता रहता है।
एक गुरु के पास गया था जिन्होंने एक मंत्र भी दिया था और बताया था कि इसके जाप से अनहदनाद सुनाई देगा और फिर शांति मिलेगी।
बड़ी लगन से मंत्र का जाप किया,फिर भी मन शांत नहीं हुआ।अब मैं परेशान हूँ।
" इतना कहकर उस साधु की आँखे गीली हो गई। "क्या आप सचमुच शान्ति चाहते हैं",विवेकानन्द जी ने पूछा।
बड़े उदासीन स्वर में साधु बोला ,इसीलिये तो आपके पास आया हूँ। स्वामी जी ने कहा,"अच्छा,मैं तुम्हें शान्ति का सरल मार्ग बताता हूँ।
इतना जान लो कि सेवा धर्म बड़ा महान है।
घर से निकलो और बाहर जाकर भूखों को भोजन दो,प्यासों को पानी पिलाओ,विद्यारहितों को विद्या दो और दीन,दुर्बल,दुखियों एवं रोगियों की तन,मन और धन से सहायता करो।
सेवा द्वारा मनुष्य का अंतःकरण जितनी जल्दी निर्मल,शान्त,शुद्ध एवं पवित्र होता है,उतना किसी और काम से नहीं। ऐसा करने से आपको सुख,शान्ति मिलेगी।
" साधु एक नए संकल्प के साथ चला गया। उसे समझ आ गयी कि मानव जाति की निः स्वार्थ सेवा से ही मनुष्य को शान्ति प्राप्त हो सकती है।
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एक गाँव के मंदिर में एक ब्रह्मचारी रहता था। लोभ,मोह से परे अपने आप में मस्त रहना उसका स्वभाव था। कभी-कभी वह यह विचार भी करता था कि इस दुनिया में सर्वाधिक सुखी कौन है? एक दिन एक रईस उस मंदिर में दर्शन हेतु आया। उसके मंहगे वस्त्र,आभूषण,नौकर-चाकर आदि देखकर बह्मचारी को लगा कि यह बड़ा सुखी आदमी होना चाहिए। उसने उस रईस से पूछ ही लिया। रईस बोला-मैं कहाँ सुखी हूँ भैया! मेरे विवाह को ग्यारह वर्ष हो गए,किन्तु आज तक मुझे संतान सुख नहीं मिला। मैं तो इसी चिंता में घुलता रहता हूँ कि मेरे बाद मेरी सम्पति का वारिस कौन होगा और कौन मेरे वंश के नाम को आगे बढ़ाएगा? पड़ोस के गांव में एक विद्वान पंडित रहते हैं। मेरी दृष्टि में वे ही सच्चे सुखी हैं।
ब्रह्मचारी विद्वान पंडित से मिला,तो उसने कहा-मुझे कोई सुख नहीं है बंधु,रात-दिन परिश्रम कर मैंने विद्यार्जन किया,किन्तु उसी विद्या के बल पर मुझे भरपेट भोजन भी नहीं मिलता। अमुक गांव में जो नेताजी रहते हैं,वे यशस्वी होने के साथ-साथ लक्ष्मीवान भी है। वे तो सर्वाधिक सुखी होंगे। ब्रह्मचारी उस नेता के पास गया,तो नेताजी बोले-मुझे सुख कैसे मिले? मेरे पास सब कुछ है,किन्तु लोग मेरी बड़ी निंदा करते हैं। मैं कुछ अच्छा भी करूँ तो उसमें बुराई खोज लेते हैं। यह मुझे सहन नहीं होता। यहां से चार गांव छोड़कर एक गांव के मंदिर में एक मस्तमौला ब्रह्मचारी रहता है। इस दुनिया में उससे सुखी और कोई नहीं हो सकता। ब्रह्मचारी अपना ही वर्णन सुनकर लज्जित हुआ और वापिस मंदिर में लौटकर पहले की तरह सुख से रहने लगा।
ब्रह्मचारी विद्वान पंडित से मिला,तो उसने कहा-मुझे कोई सुख नहीं है बंधु,रात-दिन परिश्रम कर मैंने विद्यार्जन किया,किन्तु उसी विद्या के बल पर मुझे भरपेट भोजन भी नहीं मिलता। अमुक गांव में जो नेताजी रहते हैं,वे यशस्वी होने के साथ-साथ लक्ष्मीवान भी है। वे तो सर्वाधिक सुखी होंगे। ब्रह्मचारी उस नेता के पास गया,तो नेताजी बोले-मुझे सुख कैसे मिले? मेरे पास सब कुछ है,किन्तु लोग मेरी बड़ी निंदा करते हैं। मैं कुछ अच्छा भी करूँ तो उसमें बुराई खोज लेते हैं। यह मुझे सहन नहीं होता। यहां से चार गांव छोड़कर एक गांव के मंदिर में एक मस्तमौला ब्रह्मचारी रहता है। इस दुनिया में उससे सुखी और कोई नहीं हो सकता। ब्रह्मचारी अपना ही वर्णन सुनकर लज्जित हुआ और वापिस मंदिर में लौटकर पहले की तरह सुख से रहने लगा।
" उसे समझ में आ गया कि सच्चा सुख लौकिक सुखों में नहीं है बल्कि वह तो लौकिक चिंताओं से मुक्त अलौकिक की निः स्वार्थ उपासना में बसता है। समस्त भौतिकता से परे आत्मिकता को पा लेना ही सच्चे सुख व आनंद की अनुभूति कराता है। "
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अमेरिकावासी बहनो तथा भाईयो,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्
। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
- जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
"जो कोई मेरी ओर आता हैं - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।" साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्
। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
- जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
"जो कोई मेरी ओर आता हैं - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।" साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
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एक सेठजी का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। उनके बाद उनका लड़का मालिक बना। उसने एक दिन अपने पुराने मुनीम जी से पूछा कि मुनीम जी हमारे पास कितना धन है? मुनीम ने सोचा अभी यह लड़का है,इससे क्या कहें,क्या न कहें। मुनीम जी ने कहा-"सेठजी,आपके पास इतना धन है कि आपकी तेरह पीढ़ी बैठे-बैठे खा सकती हैं।" इसे सुनकर सेठजी का चेहरा उदास हो गया। सोचने लगे कि तेरहवीं पीढ़ी तक का तो इंतजाम है,लेकिन चौदहवीं पीढ़ी क्या खायेगी? सेठजी चिन्तित रहने लगे,जिसके कारण भूख और नींद ही हवा हो गई,तबियत उदास रहने लगी। सेठ जी को उदास देखकर मुनीम जी ने पूछा-"सेठ जी! एक उपाय करो। आप एकादशी का व्रत रखा करो और द्वादशी के दिन किसी सन्तोषी ब्राह्मण को सीधा(अन्नदान) दान कर दिया करो। आपकी सब चिंताएं दूर हो जायेंगी।
"सेठ जी ने ऐसा ही किया। तीन दिन बाद एकादशी थी। सेठ जी ने एकादशी का व्रत किया। दूसरे दिन प्रातः मुनीम जी से बोले-"सीधा अपने हाथ से ही ब्राह्मण को देना चाहिए।" सेठ जी ने एक सीधा लगवाया और मुनीम जी को साथ लेकर ब्राह्मण के दरवाजे पर गये। पंडित जी!सीधा ले लीजिये। पण्डित जी ने कहा-ठहरिये,मैं भीतर पण्डितानी से पूछ आऊँ।वह भीतर गए और पंडितानी से पूछा-"आज का क्या प्रबंध है?" ब्राह्मणी ने कहा-'आज का सीधा आ गया है।' पंडित जी बाहर आये और सेठजी से बोले-"सेठजी!आज का सीधा हमारे यहाँ आ गया है,आप इसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दे दीजिये।" सेठजी बोले-"आज का आ गया है तो क्या हुआ,यह आपको कल काम देगा।"ब्राह्मण देवता ने कहा-"जिसने आज का प्रबंध किया है,वही कल का भी करेगा। हम भविष्य की चिंता नहीं करते।" ऐसा सुनते ही सेठजी सोचने लगे,"मुझे तो चौदहवीं पीढ़ी की चिंता है और इस ब्राह्मण को कल की भी चिंता नहीं!" सेठ जी की भीतरी आँखे खुल गई,उनकी चिंता दूर जो गई। भगवान का अनन्त भक्त भविष्य की चिंता नहीं करता।
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